पर पीड़ा से पूर-पूर हो
थक-थककर और चूर-चूर हो
अमल-धवल गिरि के शिखरों पर
प्रियवर! तुम कब तक सोये थे?
रोया यक्ष कि तुम रोये थे!
कालिदास! सच-सच बतलाना!
_नागार्जुन
‘कालिदास सच-सच बतलाना’ कविता की प्रश्न पुकार अमीना के साथ है। वह बोलती कम है लेकिन टीस...
"दाता पीर" उपन्यास का आखिरी पृष्ठ कहता है_"दूसरे दिन की दोपहर रसीदन और अमीना ने फजलू की कब्र खोदी। अमीना कुदाल चला रही थी और रसीदन गड्ढे से निकली माटी सहेज रही थी..."
फजलू रसीदन का चिराग़ है। उसे नाज़ भी है। एक पैर खराब होने के बाद भी वह कब्र खोद लेता है। रसीदन कहे न कहे लेकिन फजलू के साथ आखिर तक दाता पीर मनिहारी की ही छांव में रहना चाहती थी लेकिन लिखा कुछ और था। अमीना(बेटी) के साथ मिलकर फजलू की कब्र खोदते हुए उसे सब याद आ रहा था।
माटी देने तक दोनों कठकरेज की तरह बस काम कर रही थीं। और...
"दोनों ने एक_ दूसरे को देखा। अपलक देखती रहीं कुछ देर। अचानक लगा जैसे सब कुछ थम हो। मानो पूरी कायनात किसी लम्बे इंतज़ार के खत्म होने की राह देख रही हो। पहले अमीना का कंठ फूटा। एक जुंबिश हुई और वह एक घुटती हुई चीत्कार के साथ अपनी अम्मी की देह से लिपट गई...।"
साबिर और अमीना के साथ मिलना अलग नहीं हो सकता। इनके साथ कालिदास_मल्लिका याद आते रहे। अमीना ने साबिर को शहनाई का उस्ताद बनने के लिए दूर भेज दिया था। लेकिन उसका जाना ही रहा। हालचाल पूछने में अमीना का छूटना तय था। वह आख़िर में रसीदन से कहती है_
"हम क्या पूछते कि डोली लेकर रुखसती कराने कब आओगे?...या कहती कि करजा ले_ले कर पेट भर रहे हैं हम लोग...,कुछ पैसा खैरात दे जाओ?"
मैं कल से एक साथ बहुत सी जिन्दगियों को जी रही हूं। सत्तार मियाँ,चुन्नी,राधे,बबीता भाभी,बबलू...
"मीर की शायरी में आध्यात्म" विषय पर पीएच.डी. कर रहे समद आखिर में समदू फ़कीर नाम से जाने जाते हैं। रसीदन बाजी से एक बार पूछ ही लिया था:"जूबी" की कब्र के बारे में।
हृषीकेश सुलभ का उपन्यास है "दाता पीर। कल से नहीं छूटा। मैं भी जूबी की कब्र के बारे में जानना चाहती हूं_
फ़क़ीराना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तईं कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सबों की ख़ुदा कर चले
गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले।
_मीर तकी मीर
~रश्मि सिंह
शोधार्थी,हिंदी
महात्मा गाँधी केंद्रीय विश्वविद्यालय,बिहार
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